छत्तीसगढ़ के गाताबहारा में शिक्षा का संघर्ष: 27 साल से जर्जर स्कूल, बच्चे मजबूरन पढ़ते हैं झोपड़ी में

धमतरी जिले के वनांचल में स्थित गाताबहारा गाँव की दर्दनाक कहानी, जहाँ आजादी के 75 साल बाद भी बच्चे जर्जर स्कूल भवन के कारण झोपड़ी में पढ़ने को मजबूर हैं। जानें कैसे सरकारी उदासीनता ने छीनी बच्चों से बुनियादी शिक्षा का अधिकार।

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एक गाँव, दो दशक का इंतज़ार: छत्तीसगढ़ के वनांचल में ढहती शिक्षा और टूटते सपने

धमतरी: छत्तीसगढ़ के गाताबहारा में शिक्षा का संघर्ष: 27 साल से जर्जर स्कूल, बच्चे मजबूरन पढ़ते हैं झोपड़ी में, राजधानी रायपुर से कुछ सौ किलोमीटर दूर, छत्तीसगढ़ के घने वनांचल में एक ऐसा गाँव है जहाँ समय थम सा गया है। यह कहानी है धमतरी जिले के नगरी विकासखंड से लगभग 30 किलोमीटर दूर, ग्राम पंचायत खल्लारी के आश्रित ग्राम गाताबहारा की। एक ऐसा नाम जो अब केवल भौगोलिक पहचान नहीं, बल्कि सरकारी उपेक्षा और बुनियादी सुविधाओं के अभाव का पर्याय बन चुका है। यहाँ, 21वीं सदी में भी, बच्चे शिक्षा के अधिकार के लिए संघर्ष कर रहे हैं – एक ऐसे स्कूल में जहाँ छत के नाम पर सिर्फ एक तिरपाल है और उम्मीदों के नाम पर सिर्फ वादे।

टूटी हुई नींव, टिमटिमाते सपने

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गाताबहारा में प्राथमिक शिक्षा की नींव वर्ष 1997 में रखी गई थी, जब शासन ने यहाँ एक प्राथमिक शाला को स्वीकृति दी थी। तब से लेकर आज तक 27 साल बीत चुके हैं, लेकिन इन वर्षों में जो एकमात्र चीज बनी रही, वह है निराशा और इंतजार। स्कूल के लिए जो भवन आरंभ में निर्मित किया गया था, वह अब केवल खंडहर का अवशेष है। उसकी दीवारें ढहने लगी हैं, छत गायब है और फर्श पर घास उग आई है। यह भवन अब बच्चों के लिए सुरक्षित नहीं, बल्कि खतरे का पर्याय बन चुका है।

इसी जर्जर भवन के ठीक बगल में, एक अस्थायी झोपड़ी, जिसे गाँव वालों ने मिलकर खड़ा किया है, आज इन बच्चों का 'ज्ञान मंदिर' है। बारिश हो या चिलचिलाती गर्मी, साल के अधिकांश समय बच्चे इसी तालपत्री के नीचे बैठकर अक्षर ज्ञान सीखते हैं। यह दृश्य न केवल हृदय विदारक है, बल्कि उन सभी सरकारी दावों और विकास योजनाओं पर एक करारा प्रहार है जो कागजों पर तो बड़े-बड़े वादे करती हैं, लेकिन ज़मीनी हकीकत से कोसों दूर हैं।

आज़ादी के 75 साल बाद भी अँधेरे में डूबा गाँव

गाताबहारा की कहानी केवल स्कूल तक ही सीमित नहीं है। यह गाँव आज भी सड़क, स्वास्थ्य, बिजली और स्वच्छ पेयजल जैसी बुनियादी सुविधाओं से वंचित है। "आज़ादी के 75 वर्षों बाद भी, हम यहाँ आदिम युग में जी रहे हैं," गाँव के एक बुजुर्ग, रामप्रसाद मरकाम, दर्द भरी आवाज़ में कहते हैं। "बच्चे बीमार पड़ते हैं तो उन्हें खाट पर लादकर कई किलोमीटर दूर मुख्य सड़क तक ले जाना पड़ता है। बिजली नहीं है, तो शाम होते ही पूरे गाँव में सन्नाटा पसर जाता है। हमारे गाँव तक कोई पक्की सड़क नहीं है, जिससे आवागमन भी एक बड़ी चुनौती है।"

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गाँव के इस हाल ने न केवल बच्चों की शिक्षा को प्रभावित किया है, बल्कि पूरे समुदाय के विकास को बाधित कर दिया है। जहाँ देश डिजिटल इंडिया और स्मार्ट क्लासरूम की बातें कर रहा है, वहीं गाताबहारा के बच्चे खुले में बैठकर पढ़ाई करने को मजबूर हैं, जहाँ डिजिटल शिक्षा की तो बात ही दूर, साधारण ब्लैकबोर्ड और बेंच तक नसीब नहीं।

जनप्रतिनिधियों की बेरुखी और अधिकारियों की उदासीनता

गाँव वालों की सबसे बड़ी शिकायत जनप्रतिनिधियों और प्रशासनिक अधिकारियों की उदासीनता से है। उनका कहना है कि चुनाव के समय तो नेता बड़े-बड़े वादे लेकर गाँव आते हैं, लेकिन चुनाव खत्म होते ही वे पाँच साल के लिए गायब हो जाते हैं। स्थानीय सरपंच और अन्य पंचायत प्रतिनिधियों ने भी इस ओर कोई ठोस पहल नहीं की है। कई बार ग्रामीणों ने जिला प्रशासन और शिक्षा विभाग को अपनी समस्याओं से अवगत कराया है, लेकिन हर बार उन्हें केवल आश्वासन ही मिला है, समाधान नहीं।

एक ग्रामीण महिला, सुकमा बाई, बताती हैं, "हमने कई बार अधिकारियों को बुलाया, गुहार लगाई, लेकिन कोई हमारी सुनने को तैयार नहीं। हमारे बच्चों का क्या होगा? क्या उन्हें कभी एक पक्के स्कूल भवन में पढ़ने का मौका नहीं मिलेगा?" उनकी आँखों में दिख रही पीड़ा और अनिश्चितता, पूरे गाँव की सामूहिक भावना को दर्शाती है।

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शिक्षा के अधिकार का मज़ाक

शिक्षा का अधिकार अधिनियम (RTE) भारत के हर बच्चे को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा का अधिकार देता है। लेकिन गाताबहारा जैसे गाँव में, यह अधिकार केवल कागजी खानापूर्ति बनकर रह गया है। यहाँ के बच्चे, जो भारत के भविष्य हैं, सबसे मूलभूत सुविधाओं से वंचित हैं। वे न केवल बुनियादी शिक्षा से वंचित हो रहे हैं, बल्कि इस स्थिति से उनके मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य पर भी नकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है। बारिश के मौसम में, जब झोपड़ी की छत भी टपकने लगती है, तब पढ़ाई पूरी तरह से बाधित हो जाती है। गर्मी में, धूल और तपिश के बीच बैठकर पढ़ना किसी चुनौती से कम नहीं होता।

उम्मीद की किरण की तलाश

गाँव के लोग अब थक चुके हैं, लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी है। वे अब भी सरकार से एक मजबूत और स्थाई स्कूल भवन, गाँव तक पक्की सड़क, 24 घंटे बिजली, स्वास्थ्य सुविधाएँ और शुद्ध पेयजल की मांग कर रहे हैं। वे जानते हैं कि उनके बच्चों के भविष्य के लिए यह अत्यंत आवश्यक है। यह केवल एक स्कूल का मामला नहीं, बल्कि पूरे गाँव के अस्तित्व और सम्मान का सवाल है।

यह ज़रूरी है कि शासन और प्रशासन इस मामले को गंभीरता से ले। गाताबहारा जैसे गाँव सिर्फ आंकड़े नहीं हैं, वे भारत के असली ग्रामीण भारत का चेहरा हैं। उनके विकास के बिना, राष्ट्र के समग्र विकास की कल्पना अधूरी है। यह समय है कि कागजी वादों से बाहर निकलकर, ज़मीनी स्तर पर बदलाव लाया जाए और गाताबहारा के बच्चों को भी मुख्यधारा से जुड़ने का अवसर मिले।

आगे की राह: क्या जागेगी सरकार?

यह देखना बाकी है कि क्या यह खबर एक बार फिर प्रशासन की नींद तोड़ पाएगी। क्या धमतरी जिला प्रशासन और छत्तीसगढ़ सरकार इस सुदूर वनांचल में शिक्षा के अधिकार के लिए जूझ रहे बच्चों की पुकार सुनेगी? क्या गाताबहारा को भी वह विकास नसीब होगा जिसका वह दशकों से इंतज़ार कर रहा है? गाँव के बच्चे आज भी एक उम्मीद भरी नज़रों से आसमान की ओर देख रहे हैं, शायद किसी दिन उनके स्कूल को भी एक पक्की छत नसीब हो जाए, और उनके सपने सिर्फ झोपड़ी की तालपत्री के नीचे ही न दम तोड़ दें।

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Dr. Tarachand Chandrakar

Senior Journalist & Editor, Nidar Chhattisgarh

Dr. Tarachand Chandrakar is a respected journalist with decades of experience in reporting and analysis. His deep knowledge of politics, society, and regional issues brings credibility and authority to Nidar Chhattisgarh. Known for his unbiased reporting and people-focused journalism, he ensures that readers receive accurate and trustworthy news.

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