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मनेंद्रगढ़ में अंधेरा होते ही सन्नाटा: भालुओं के आतंक से सहमा शहर, क्या वन विभाग केवल पिंजरे लगाएगा या ढूंढेगा स्थायी समाधान?
मनेंद्रगढ़ : छत्तीसगढ़ के नवगठित मनेन्द्रगढ़-चिरमिरी-भरतपुर (एमसीबी) जिले का मुख्यालय मनेंद्रगढ़ आजकल एक अजीबोगरीब चुनौती का सामना कर रहा है। यहां शाम ढलते ही 35 हजार की आबादी वाले इस शहर की गलियों में कर्फ्यू जैसा सन्नाटा पसर जाता है। वजह कोई कानून-व्यवस्था का उल्लंघन नहीं, बल्कि जंगली भालुओं का बढ़ता आतंक है। पिछले पखवाड़े भर से शहर के अलग-अलग वार्डों में भालुओं की लगातार घुसपैठ ने नगरवासियों को भयभीत कर दिया है, जिसके चलते वन विभाग ने एक अभूतपूर्व चेतावनी जारी की है: शाम 6 बजे से सुबह 6 बजे तक कोई भी नागरिक अपने घर से बाहर न निकले। यह स्थिति केवल मनेंद्रगढ़ तक सीमित नहीं, बल्कि छत्तीसगढ़ के उन कई हिस्सों की कहानी बयां करती है, जहां मानव और वन्यजीव के बीच का संघर्ष गहराता जा रहा है।
रात के अंधेरे में भालुओं का राज: दहशत में शहरवासी
पिछले कुछ हफ्तों से, मनेंद्रगढ़ के नागरिक एक अनोखी दिनचर्या के आदी हो गए हैं। दिन में सामान्य चहलकदमी के बाद, जैसे ही घड़ी में शाम के 6 बजते हैं, शहर की सड़कें खाली होने लगती हैं। लोग अपने घरों में दुबक जाते हैं, खिड़कियों और दरवाजों को मजबूती से बंद कर लेते हैं, और लाइट्स को पूरी रात जलाकर रखते हैं, उम्मीद में कि यह प्रकाश वन्यजीवों को दूर रखेगा। कारण स्पष्ट है: रात के अंधेरे में, कहीं झुंड में तो कहीं अकेले, भालू शहर के वार्डों में विचरण करते देखे जा रहे हैं। वन विभाग की पेट्रोलिंग टीमें रात भर शहर में मुनादी कराकर लोगों को घरों के अंदर रहने की हिदायत दे रही हैं।
यह डर काल्पनिक नहीं है। तीन दिन पहले ही राजस्व विभाग का एक कर्मचारी भालुओं के हमले में घायल हो चुका है। और बुधवार की सुबह, वन परिक्षेत्र बिहारपुर के ग्राम ढोलकू में एक गर्भवती महिला भी भालुओं के हमले में गंभीर रूप से जख्मी हो गई, जिसे प्राथमिक उपचार के बाद अंबिकापुर रेफर करना पड़ा। ये घटनाएं नागरिकों के मन में बैठे डर को और भी पुख्ता करती हैं।
वन विभाग की निष्क्रियता पर उठे सवाल: सोशल मीडिया से लेकर धरने तक
मनेंद्रगढ़ के नागरिक वन विभाग की कार्यप्रणाली को लेकर खासे नाराज हैं। सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर यह मुद्दा गरमाया हुआ है, जहां लोग वन विभाग की निष्क्रियता पर तीखी बहस कर रहे हैं। कई लोग उस घटना को याद कर रहे हैं, जब कुछ समय पहले डीएफओ कार्यालय में जनप्रतिनिधियों और डीएफओ के बीच भालुओं के मुद्दे पर तीखा विवाद और धरना-प्रदर्शन हुआ था। लोगों का आरोप है कि इतने विवाद और प्रदर्शन के बावजूद वन विभाग ने भालुओं को शहर में आने से रोकने के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाया है।
आलोचना का एक प्रमुख बिंदु भालुओं को पकडऩे के लिए लगाए गए पिंजरों की प्रभावहीनता है। नागरिकों का कहना है कि पिंजरे तो लगाए गए हैं, लेकिन उनके अंदर भालुओं को आकर्षित करने वाली कोई खाने-पीने की चीज नहीं रखी जाती। ऐसे में, यह सवाल लाजिमी है कि भालुओं का दल आखिर इन खाली पिंजरों में कैसे फंसेगा? बुधवार को नगर पालिका अध्यक्ष-उपाध्यक्ष की मौजूदगी में कुछ जगहों पर झाडिय़ों की सफाई कराई गई और नए स्थान पर पिंजरा भी लगाया गया, लेकिन जब तक रणनीति में बदलाव नहीं आता, इन प्रयासों की सफलता संदिग्ध है।
मानव-वन्यजीव संघर्ष का बढ़ता दायरा: कारण और समाधान
मनेंद्रगढ़ में भालुओं की समस्या केवल शहरी इलाकों तक ही सीमित नहीं है। ग्राम पंचायत चनवारीडांड़ और लालपुर जैसे ग्रामीण अंचलों में भी भालुओं को विचरण करते देखा गया है, जिससे ग्रामीण भी भयभीत हैं। यह स्थिति एक बड़े पर्यावरणीय असंतुलन की ओर इशारा करती है।
भालुओं के रिहायशी इलाकों में आने के कई कारण हो सकते हैं:
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वन्य आवासों का विनाश: शहरीकरण, औद्योगीकरण और खनन गतिविधियों (जैसे हसदेव अरण्य में कोयला खनन) के कारण वन्यजीवों के प्राकृतिक आवास सिकुड़ रहे हैं। जब उनके रहने की जगह कम होती है, तो वे भोजन और आश्रय की तलाश में मानव बस्तियों की ओर रुख करते हैं।
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भोजन की कमी: जंगलों में भोजन के स्रोतों में कमी आने पर भालू आसानी से उपलब्ध भोजन की तलाश में शहरों और गांवों में प्रवेश कर जाते हैं, जहां वे कूड़ेदानों, फलदार वृक्षों या खेतों में भोजन पा सकते हैं।
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जल स्रोतों का अभाव: गर्मी के मौसम में जंगलों में पानी की कमी होने पर भी वन्यजीव आबादी वाले क्षेत्रों में जल स्रोतों की तलाश में आते हैं।
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गलियारे का अतिक्रमण: वन्यजीवों के पारंपरिक गलियारों पर मानव बस्तियों या गतिविधियों का अतिक्रमण होने से वे रास्ता भटककर शहरी क्षेत्रों में पहुंच जाते हैं।
इस समस्या के स्थायी समाधान के लिए केवल पिंजरे लगाना पर्याप्त नहीं होगा। वन विभाग को एक व्यापक रणनीति अपनाने की आवश्यकता है जिसमें शामिल हो सकते हैं:
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वन्य आवासों का संरक्षण और पुनर्स्थापन: जंगलों को बचाना और उन्हें समृद्ध बनाना ताकि वन्यजीवों को वहीं पर्याप्त संसाधन मिल सकें।
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पर्याप्त भोजन और जल स्रोत: जंगलों के भीतर भालुओं के लिए पर्याप्त भोजन और जल स्रोतों की व्यवस्था करना।
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जागरूकता अभियान: स्थानीय आबादी को वन्यजीवों के साथ सुरक्षित सह-अस्तित्व के बारे में शिक्षित करना।
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रैपिड रिस्पांस टीम: भालुओं के दिखने पर त्वरित प्रतिक्रिया देने वाली और प्रशिक्षित टीमों का गठन।
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शहरी-वन्यजीव इंटरफेस प्रबंधन: शहरी और वन क्षेत्रों के बीच के इलाकों में विशेष प्रबंधन योजनाएं लागू करना।
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फेंसिंग और अवरोधक: कुछ संवेदनशील क्षेत्रों में भालुओं के प्रवेश को रोकने के लिए प्राकृतिक या कृत्रिम अवरोधकों का उपयोग।
भयमुक्त मनेंद्रगढ़ का इंतजार
मनेंद्रगढ़ में भालुओं का बढ़ता आतंक एक गंभीर समस्या है जो न केवल जान-माल के लिए खतरा बन रहा है, बल्कि नागरिकों के दैनिक जीवन को भी प्रभावित कर रहा है। शाम 6 बजे से सुबह 6 बजे तक घरों में कैद रहने की चेतावनी एक आपातकालीन स्थिति का संकेत है। वन विभाग को अब केवल तात्कालिक उपायों पर निर्भर रहने के बजाय एक दीर्घकालिक और प्रभावी समाधान खोजने की आवश्यकता है। यह केवल एक पिंजरा लगाने या मुनादी कराने का मामला नहीं है, बल्कि मानव और वन्यजीव के बीच संतुलन स्थापित करने, प्रकृति का सम्मान करने और सह-अस्तित्व के मार्ग खोजने का है। मनेंद्रगढ़ के नागरिक एक भयमुक्त जीवन चाहते हैं, और यह देखना होगा कि सरकार और वन विभाग कब उन्हें यह सुरक्षा प्रदान कर पाते हैं।
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