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मोहला-मानपुर-अंबागढ़-चौकी जिले में एक परिवार ने सामाजिक बहिष्कार और दबंगों के अत्याचार से तंग आकर थाने में आत्मदाह का प्रयास किया। जानें इस दिल दहला देने वाली घटना का पूरा सच और पुलिस की भूमिका पर उठते सवाल।

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सामाजिक बहिष्कार से परेशान परिवार का थाने में आत्मदाह का प्रयास, पुलिस पर उठे सवाल
सामाजिक बहिष्कार से परेशान परिवार का थाने में आत्मदाह का प्रयास, पुलिस पर उठे सवाल

ब्रेकिंग न्यूज़: न्याय की आस में थाने में आत्मदाह का प्रयास, छत्तीसगढ़ में सामाजिक बहिष्कार का भयावह चेहरा

मोहला-मानपुर-अंबागढ़-चौकी : शांति और सौहार्द के लिए पहचाने जाने वाले छत्तीसगढ़ से एक ऐसी हृदय विदारक खबर सामने आई है, जिसने पूरे प्रदेश को झकझोर कर रख दिया है। न्याय की गुहार लगाते-लगाते हताश हो चुके एक परिवार ने शनिवार शाम मोहला-मानपुर-अंबागढ़-चौकी जिले के अंबागढ़ चौकी थाने के सामने ही आत्मदाह का प्रयास किया। यह घटना न केवल स्थानीय प्रशासन पर गंभीर सवाल खड़े करती है, बल्कि ग्रामीण क्षेत्रों में व्याप्त सामाजिक बहिष्कार और दबंगई के भयावह परिणामों को भी उजागर करती है।

अंधेरे में डूबा पांगरी गाँव का परिवार

यह घटना मोहला-मानपुर-अंबागढ़-चौकी जिले के पांगरी गाँव से जुड़ी है। निर्मला बाई साहू (52 वर्ष), उनकी बेटी कुमारी केसरिया साहू (21 वर्ष), बहू तानेश्वरी साहू (29 वर्ष) और दो मासूम पोतियों - प्राची साहू (8 वर्ष) और हुमांशी साहू (7 वर्ष) ने मिलकर शनिवार शाम करीब 5 बजे अंबागढ़ चौकी थाने में पेट्रोल डालकर खुद को खत्म करने की कोशिश की। यह कल्पना करना भी कठिन है कि किन परिस्थितियों ने इन महिलाओं और छोटी बच्चियों को इतना बड़ा कदम उठाने पर मजबूर किया होगा। शुक्र है कि मौके पर मौजूद पुलिसकर्मियों और स्थानीय पत्रकारों की तत्परता से उनकी जान बचा ली गई। यदि कुछ पल की भी देरी होती, तो एक पूरा परिवार इस अन्याय का शिकार हो जाता।

दबंगों का आतंक और रोजी-रोटी पर संकट

पीड़ित परिवार का आरोप है कि गाँव के कुछ दबंगों ने उनका जीना मुहाल कर रखा है। उनकी निजी ज़मीन पर बनी दुकान को जबरन बंद करवा दिया गया है, जिससे उनकी रोजी-रोटी छिन गई है। इसके साथ ही, पूरे परिवार का सामाजिक बहिष्कार कर दिया गया है। गाँव में उनका "हुक्का-पानी" बंद कर दिया गया है, जिसका अर्थ है कि उन्हें सामाजिक रूप से पूरी तरह से अलग-थलग कर दिया गया है। ऐसे में, जहाँ एक ओर उन्हें आर्थिक तंगी का सामना करना पड़ रहा है, वहीं दूसरी ओर सामाजिक अलगाव ने उन्हें मानसिक रूप से भी तोड़ दिया है।

पुलिस की निष्क्रियता और न्याय की अधूरी तलाश

इस पूरे मामले में सबसे बड़ा सवाल स्थानीय पुलिस प्रशासन की भूमिका पर उठ रहा है। परिवार का दावा है कि उन्होंने इस उत्पीड़न के खिलाफ पहले भी कई बार शिकायत दर्ज कराई थी। आयोग से लेकर पुलिस प्रशासन तक, उन्होंने हर संभव दरवाजे पर न्याय की गुहार लगाई, लेकिन उनकी शिकायत पर कोई ठोस कार्रवाई नहीं हुई। महीनों से चल रही इस परेशानी और प्रशासन की कथित निष्क्रियता ने उन्हें इस हद तक निराशा में धकेल दिया कि उन्होंने अपनी जान लेने का फैसला कर लिया। यह स्थिति किसी भी सभ्य समाज के लिए चिंताजनक है, जहाँ कानून के रखवालों पर ही नागरिकों की निराशा का आरोप लग रहा है।

एसपी का हस्तक्षेप और कार्रवाई का निर्देश

इस गंभीर घटना के सामने आने के बाद, जिले के पुलिस अधीक्षक (एसपी) वाईपी सिंह ने तत्काल मामले का संज्ञान लिया। उन्होंने एसडीओपी दीवान को तुरंत अंबागढ़ चौकी थाने रवाना किया और पूरे मामले की गहन जांच तथा दोषियों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई सुनिश्चित करने के निर्देश दिए। एसपी के इस त्वरित हस्तक्षेप से उम्मीद बंधी है कि शायद अब इस पीड़ित परिवार को न्याय मिल पाएगा। हालांकि, यह सवाल अभी भी बरकरार है कि आखिर क्यों एक परिवार को इतना बड़ा कदम उठाने पर मजबूर होना पड़ा, जब वे लगातार मदद मांग रहे थे।

सामाजिक बहिष्कार: एक गहरा घाव

भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में सामाजिक बहिष्कार की प्रथा आज भी कई जगह मौजूद है और यह एक व्यक्ति या परिवार के लिए अत्यंत पीड़ादायक हो सकती है। हुक्का-पानी बंद करने का अर्थ है उस व्यक्ति या परिवार को गाँव के सामाजिक और आर्थिक ताने-बाने से पूरी तरह काट देना। उन्हें किसी भी सामाजिक कार्यक्रम में शामिल होने से रोका जाता है, उनसे बातचीत बंद कर दी जाती है, और कभी-कभी तो उन्हें पानी भरने या सार्वजनिक स्थलों का उपयोग करने से भी वंचित कर दिया जाता है। ऐसे में, पीड़ित परिवार के लिए जीवनयापन करना और समाज में सामान्य रूप से रहना असंभव हो जाता है। इस तरह की प्रथाएं मानवाधिकारों का घोर उल्लंघन हैं और सभ्य समाज में इनका कोई स्थान नहीं होना चाहिए।

क्या यह एक नई शुरुआत है?

इस घटना ने एक बार फिर ग्रामीण भारत में शक्ति के दुरुपयोग और कमजोर तबकों पर अत्याचारों के मुद्दे को केंद्र में ला दिया है। यह देखना बाकी है कि एसपी के निर्देश के बाद पुलिस कितनी तत्परता और निष्पक्षता से कार्रवाई करती है। क्या दोषी दबंगों को कानून के कटघरे में खड़ा किया जाएगा? क्या पीड़ित परिवार को उनका सम्मान और रोजी-रोटी वापस मिल पाएगी? और सबसे महत्वपूर्ण, क्या प्रशासन इस तरह की घटनाओं की पुनरावृत्ति रोकने के लिए कोई ठोस कदम उठाएगा?

यह घटना एक चेतावनी है कि हमें अपने समाज के सबसे कमजोर तबके की आवाज़ सुननी होगी। न्याय में देरी न केवल अन्याय को बढ़ावा देती है, बल्कि लोगों का कानून और व्यवस्था पर से विश्वास भी उठा देती है। पांगरी गाँव के इस परिवार का दर्द एक ऐसी कहानी बयां करता है, जहाँ न्याय की तलाश में एक परिवार को अपनी जान जोखिम में डालनी पड़ी। उम्मीद है कि यह घटना एक बड़े बदलाव की शुरुआत बनेगी और ऐसे और परिवारों को ऐसी चरम स्थिति में पहुंचने से रोका जा सकेगा। यह समय है कि समाज, प्रशासन और कानून मिलकर इस तरह की प्रथाओं को जड़ से खत्म करने के लिए प्रतिबद्ध हों और सुनिश्चित करें कि कोई भी व्यक्ति न्याय के लिए इतना मजबूर न हो कि उसे अपनी जिंदगी ही दांव पर लगानी पड़े।

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